श्रीनगर,। जून 2018 में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार गिरने के बाद से ही पीडीपी में बगावत और आंतरिक कलह तेज हो चुकी है। पीडीपी में कलह से महबूबा की मुश्किलें और बढ़ी है।
विधानसभा चुनाव में कुछ देरी से पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को पार्टी के बागियों और रूठे हुए नेताओं का समय भले ही मिल गया लेकिन उनकी कोशिश फिलहाल सफल होती नहीं दिख रही हैं। इसके विपरीत पार्टी में बचे खुचे कई नेता और प्रमुख कार्यकर्ता भी उनके नेतृत्व पर सवाल उठाने लगे हैं।
हालत यह है कि पार्टी कार्यकारी और राजनीतिक सलाहकार समिति की बैठक बीते एक पखवाड़े में दो बार रद करनी पड़ी है। विधानसभा चुनावों की सितंबर माह या उसके बाद किसी भी समय घोषणा हो सकती है पर पार्टी संगठन में कहीं भी उत्साह नजर नहीं आ रहा है। अगर यही स्थिति रहती है तो महबूबा की मुश्किलें और भी बढ़ सकती हैं।
गौरतलब है कि जून 2018 में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार गिरने के बाद से ही पीडीपी में बगावत और आंतरिक कलह तेज हो चुकी है। छह पूर्व मंत्री इमरान रजा अंसारी, बशारत बुशारी, जावेद मुस्तफा मीर, सईद अल्ताफ बुखारी, हसीब द्राबु और पीर मोहम्मद हुसैन उनका साथ छोड़ चुके हैं। इनके अलावा अब्बास वानी कई पूर्व विधायक और संगठन के बड़े नेता भी पीडीपी छोड़ अन्य दलों में अपना भविष्य बनाने में जुटे हैं।
पूर्व सांसद तारिक हमीद करा भी उनसे अलग हो चुके हैं। इन सभी ने महबूबा मुफ्ती की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाते हुए कहा है कि भाजपा -पीडीपी सरकार गिरने का कारण भाजपा की समर्थन वापसी नहीं बल्कि भाजपा के सहयोग के बावजूद वह कश्मीरियों के साथ किए गए वादों को पूरा करने में असमर्थ रहीं हैं। वह सिर्फ परिवारवाद की सियासत में व्यस्त रही हैं।
पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल मुजफ्फर हुसैन बेग भी बगावती सुर दिखा चुके थे, लेकिन महबूबा ने उन्हें पार्टी का संरक्षक बना किसी तरह रोक लिया। इसके साथ ही पीडीपी ने तीन और पूर्व विधायकों को किसी तरह अपने खेमे में बचाया।
लोकसभा चुनावों में मिली करारी शिकस्त के बाद महबूबा ने हार के कारणों पर चिंतन के लिए एक बैठक बुलाई। यह बैठक भी काफी मशक्कत के बाद हुई, क्योंकि कई नेता बैठक में आने को राजी नहीं थे। किसी तरह यह बैठक हुई और बैठक में एक बार फिर कश्मीर के विभिन्न हिस्सों मे जनसंपर्क अभियान चलाने का फैसला हुआ। इसके साथ ही महबूबा ने संगठन में आंतरिक लोकतंत्र को पूरी तरह बहाल करने, सभी प्रमुख फैसले कार्यकारी व राजनीतिक सलाहकार समिति की बैठक में बहुमत के आधार पर लेने का यकीन दिलाया। इसके साथ ही पार्टी छोड़ने वाले कई पुराने दिग्गज नेताओं को मनाने का भी फैसला किया गया।
अलबत्ता, एक पखवाड़े से ज्यादा समय हो चुका है, नाराज नेताओं को मनाने और जनसंपर्क अभियान चलाने का लेकिन महबूबा घाटी में किसी भी जगह एक भी बैठक करने नहीं पहुंची है। उनकी पार्टी का कोई भी वरिष्ठ नेता भी श्रीनगर से बाहर स्थानीय कार्यकर्ताओं का सम्मेलन नहीं बुला पाया है। पूर्व शिक्षा मंत्री नईम अख्तर जरुर गत दिनों दो जगहों पर नजर आए,लेकिन किन हालात में उन्होंने कैसे यह बैठकें आयोजित की, यह वही जानते हैं और इन बैठकों में लोगो की उपस्थिति भी पीडीपी की स्थिति बताती है।
पीडीपी के एक वरिष्ठ नेता ने अपना नाम न छापे जाने की शर्त पर कहा कि पूर्व सांसद तारिक हमीद करा के अलावा दो पूर्व मंत्रियाें के पास महबूबा मुफ्ती के दूत पहुंचे थे ताकि संवाद का चैनल शुरु हो और उनकी वापसी की राह बनाई जा सके लेकिन तीनों ने इनकार कर दिया है। एक नेता ने तो यहां तक कहा कि हम वह किश्ती जला चुके हैं जो पीडीपी की तरफ जाती है।
पीडीपी के पूर्व विधायक और मंत्री पीर मोहम्मद हुसैन, जो पीडीपी अध्यक्ष के रिश्तेदार भी हैं, पीडीपी छोड़ नेकां में शामिल हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि महबूबा के पास कोई विजन नहीं है, वह नारों की सियासत कर सकती है, लोगों को कैसे साथ लेकर चलना है, यह उसके बस की बात नहीं है। वह कभी आजादी के नारे के साथ चलती है तो कभी सेल्फ रुल की बात करती है, कभी आतंकियों को सही ठहराती है तो कभी गलत।
कश्मीर मामलों के जानकार आसिफ कुरैशी ने कहा कि महबूबा के नेतृत्व में पीडीपी पूरी तरह परिवार डेवल्पमेंट पार्टी बन गई थी। उनकी किचेन केबिनेट के सदस्य रहे नेता भी आज दूसरे दलों में हैं। कुछ और भी हैं, जिन्होंने महबूबा को पार्टी के पुराने व वफादार नेताओं से दूर किया और जब पीडीपी का जहाज डूबने लगा तो यह दूसरे जहाज में सवार हो गए।
जेके बैंक में हुए घोटालों ने भी पीडीपी की साख को नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि इसमें महबूबा के कई रिश्तेदारों के नाम सामने आए हैं। उन्होंने कहा कि महबूबा ने भाई तस्सदुक मुफ्ती को बैक डोर से एंट्री करा मंत्री बनाया था। अब वह भी उनका साथ छोड़ चुके हैं। उनके रिश्तेदार जो पीडीपी में प्रमुख पदों पर थे अब साथ नहीं हैं। संगठन में जारी अंतर्कलह घटने के बजाय बढ़ चुकी है। इसलिए गत सप्ताह दो संगठनात्मक बैठकों को अंतिम समय में रद करना पड़ा, उन्हें डर था कि अगर बैठक में उनके इस्तीफे की मांग उठी तो उनके पास इस्तीफा देने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं होगा। इस्तीफा देने का मतलब पीडीपी पर नियंत्रण समाप्त होना।